माता बहादुर कलारिन की ऐतिहासिक कर्मस्थली ग्राम सोरर (सरहरगढ़) तहसील गुरूर जिला बालोद छत्तीसगढ़ है। प्राचीन समय में सोरर को सरहरगढ़ के नाम से जाना जाता था। लगभग चौदहवी शताब्दी में कलावती नाम की कलार जाति वैश्य महिला थी, जो वनौषधि एवं कंद मूल तथा आसवो पर अच्छी रूचि एवं ज्ञान रखती थी। अपने यौवनावस्था में ही वनौषधि से बीमार, असहाय एवं घायलों की देखभाल सेवा कर कर्तव्य निर्वहन करती थी, परन्तु एक दिन कोई राजा संध्याकालीन बेला में छछान माने बाज
छूट जाने से राजा घायल अवस्था में कलावती देवी के घर में जलते हुए दीपक की सहारे से उसके निवास तक पहुंचकर अपना इलाज कराया एवं उसके रूप यौवनावस्था पर मुग्ध हो गया। जिसके संसर्ग से एक पुत्र की प्राप्ति हुई। ईलाज के पश्चात् राजा अपने राज्य में वापस आकर कलावती देवी को भूल गया। माता बहादुर कलारिन का पुत्र छछान जब बाल्यावस्था से बड़ा हुआ तो अपने पिता के संबंध में जानकारी चाहा गया। तब माता बहादुर कलारिन उसे स्पष्ट तथा पूरी जानकारी नहीं दे पायी, तब पुत्र
छछान छाडू ने आसपास की 147 राज कन्याओं को बंदी बना लिया तथा अपने माता के सम्मान की रक्षा करने के उद्देश्य को पूरा करना चाहा। माता बहादुर कलारिन ने उन राज कन्याओं में से किसी एक से विवाह कर अन्य राज कन्याओं को मुक्त करने को कहा तब पुत्र छछान छाडू ने इंकार कर दिया। पुत्र छछान छाडू के उक्त कार्यों से आहत होकर नारी सम्मान एवं सद्भाव के लिए माता बहादुर कलारिन ने अपने पुत्र को होली के दिन बावली में धकेलकर बलिदान कर नारी सम्मान को उत्कृष्ठ मान दिया
तथा बंदी राजकन्याओं को मुक्त किया। इस प्रकार कलावती देवी, माता बहादुर कलारिन के नाम से विख्यात हुई। वर्तमान में छछान (जटायु) गोत्र कलार समाज में है।
कलार समाज में शिक्षा, संस्कृति एवं समाज कल्याण के क्षेत्र में उक्तकृष्ट कार्य के लिए ‘‘माता बहादुर कलारिन सम्मान’’ स्थापित किया है।