लक्ष्मण मस्तुरिया सम्मान

छत्तीसगढ़ के जन-जन के कवि और छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत के बेताज बादशह थे। दशकों तक छत्तीसगढ़ के गांव, गरीब और किसानों की भावनाओं को गीतों के माध्यम से अपना मधुर स्वर देते रहे और जनता के दिलों में राज करते हैं। उनके गीतों में ग्रामीण जन-जीवन और छत्तीसगढ़ माटी की पीड़ा की अनुभूति होती है।

छत्तीसगढ़ का सहज-सरल लोक जीवन उनके गीतों में रचा-बसा था। मस्तुरिया जी का जन्म बिलासपुर जिले के मस्तुरी नामक गांव में 07 जून 1949 को हुआ था। मस्तुरिया जी ने छत्तीसगढ़ी कला-संस्कृति को अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से देश और दुनिया में नई पहचान दिलाई। अपनी मीठी आवाज में मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण गीतों ने उन्हें छत्तीसगढ़ में आवाज की दुनिया का नायक बना दिया। 22 वर्ष की उम्र में ही वे प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था चंदैनी-गोंदा के मुख्य गायक बन गये थें। इसके अलावा उन्होंने देश के दिग्गज कवियों के साथ कवि सम्मेलनों में भी कविता पाठ करते रहे। 24 वर्ष की उम्र में दिल्ली के लालकिले से लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ी में मोर संग चवल रे, मोर संग चलव जी गीत गाकर, उन्होंने छत्तीसगढ़ की जनता को सामूहिकता की भावना से प्रेरित किया था।

लक्ष्मण मस्तुरिया ने आकाशवाणी, दूरदर्शन, और कवि सम्मेलनों के मंच से लेकर, छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए भी गीत और आंचलिक साहित्य एवं संस्कृति पर केन्द्रित पत्रिका लोकासुर का संपादन भी किया। लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ी में काव्य संग्रह हू बेटा भुंइया के, गीत संग्रह गंवई-गंगा, धुनही बंसुरिया खंडकाव्य सोनाखाने के आगी, माटी कहै कुम्हार से सहित कई प्रतिनिधि कविताएं लिखीं, जिसमें पता दे जा रे, पता ले जा रे गाड़ी वाला, मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी, छइहां भुइहां ला छोड़ जवइया काफी लोकप्रिय रहे। उनका हिन्दी कविताओं का संकलन सिर्फ सत्य के लिए भी वर्ष 2008 में प्रकाशित हो चुका है। उनकी गीतों पर म्युजिक इंडिया के अनेक कैसेट भी निकले। हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में उनके योगदान पर, उन्हें ‘रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान, सृजन सम्मान और आंचलिक रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।

03 नवम्बर, 2018 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उनकी स्मृति में ‘लक्ष्मण मस्तुरिया सम्मान’ स्थापित किया गया है।