मिनीमाता का जन्म सन् 1913 में असम के नुवागांव जिले के ग्राम जमुनामुख में हुआ था । आपकी माता का नाम मतीबाई था । आपका परिवार मूलतः बिलासपुर जिला निवासी था । 1901 से 1910 के बीच छत्तीसगढ़ के भीषण अकाल ने अधिकांश गरीब परिवारों को जीविका की तलाश में प्रदेश के बाहर जाने के लिए मजबुर कर दिया । आपके नाना-नानी भी असम के चाय बगानों में काम के लिए रेलगाड़ी द्वारा बिलासपुर से जोरहट गए । इस दौरान उनकी तीन पुत्रियों में से दो की मौत हो गई । एक बेटी, आपकी मां ही जीवित रहीं ।

आपके बाल्यकाल तक परिवार व्यवस्थित हो चुका था । आपका वास्तविक नाम मीनाक्षी था । आपने स्कूली शिक्षा असम में प्राप्त की । आपको असमिया, अंग्रेजी, बांगला, हिन्दी तथा छत्तीसगढी का ज्ञान था । आपके जीवन में नया मोड़ उस समय आया जब सतनामी समाज के गुरु अगमदास धर्म प्रचार के सिलसिले में असम गए और बाद में आपको जीवन संगिनी के रुप में चुना ।

अपने समाज की गरीबी, अशिक्षा तथा पिछड़ापन दूर करने के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया । 1952 से 1972 तक आपने लोकसभा में सारंगढ़, जांजगीर तथा महासमुंद क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया । मजदूर हितों और नारी शिक्षा के प्रति भी जागरुक और सहयोगी रहीं । बाल-विवाह और दहेज प्रथा को दूर करने के लिए समाज से संसद तक आपने आवाज उठाई । छत्तीसगढ़ में कृषि तथा सिंचाई के लिए हसदेव बांध परियोजना आपकी दूर-दृष्टि का परिचायक है । भिलाई इस्पात संयंत्र में स्थानीय निवासियों को रोजगार और औद्योगिक प्रशिक्षण के अवसर उपलब्ध कराने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया ।

आप सद्भावना और ममता की मूर्ति, कुशल गृहिणी, सजग सांसद, कर्मठ समाज सेविका और सच्चे अर्थों में छत्तीसगढ़ की स्वप्नदृष्टा थी । 11 अगस्त 1972 को भोपाल से दिल्ली जाते हुए पालम हवाई अड्डे के पास विमान दुर्घटना में आपका निधन हो गया । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में महिला उत्थान के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए मिनी माता सम्मान स्थापित किया है ।

पंचम वेद के रुप में जाने वाले 'आयुर्वेद के आदिदेव' भगवान 'धन्वन्तरि' को क्षीरसागर के मंधन से उत्पन्न चौदह रत्नों में से एक माना जाता है, जिनका अवतरण इस अनमोल जीवन, आरोग्य स्वास्थ्य ज्ञान और चिकित्सा से भरे हुए अमृत - कलश को लेकर हुआ । देवासुर संग्राम में घायल देवों का उपचार भगवान धन्वन्तरि के द्वारा ही किया गया । भगवान धन्वन्तरि विश्व के आरोग्य एवं कल्याण के लिए विश्व में बार - बार अवतरित हुए ।

इस तरह भगवान धन्वन्तरि के प्रादुर्भाव के साथ ही सनातन, सार्थक एवं शाश्वत आयुर्वेद भी अवतरित हुआ, जिसने अपने उत्पत्ति काल से आज तक जन - जन के स्वास्थ्य एवं संस्कृति का रक्षण किया है । वर्तमान काल में आयुर्वेद के उपदेश उतने ही पुण्य एवं शाश्वत हैं, जितने की प्रकृति के अपने नियम । भगवान धन्वन्तरि ने आयुर्वेद को आठ अंगों में विभाजित किया जिससे आयुर्वेद की विषयवस्तु सरल, सुलभ एवं जनोपयोगी हुई । इनकी प्रसिद्धि इतनी व्यापक हुई कि इन्हीं के नाम से संप्रदाय संचालित होने लगा ।

भगवान धन्वन्तरि जी की जयंती एवं विशेष पूजा - अर्चना, कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी अर्थात धनतेरस के दिन मनाते हुए, प्रत्येक मनुष्य के लिए प्रथम सुख निरोगी काया एवं श्री - समृद्धि की कामना की जाती है ।

राज्य शासन द्वारा आयुर्वेद चिकित्सा, शिक्षा तथा शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए व्यक्तियों / संस्थाओं को सम्मानित करने के उद्देश्य से देवतुल्य भगवान धन्वन्तरि की स्मृति में 'धन्वन्तरि सम्मान' की स्थापना की गई है ।

छत्तीसगढ के दुर्ग जिले में 22 नवंबर 1915 को जन्मे किशोर साहू भारतीय सिने जगत के बहुमुखी प्रतिभाशाली चिरस्मरणीय शख्सियत। फिल्मों के कथा लेखक, नायक, निर्माता तथा निर्देशक । 22 फिल्मों में अभिनेता और 20 फिल्मों का सफल निर्देशन। बाम्बे टाकीज की मशहूर अभिनेत्री देविकारानी के साथ अभिनेता के रूप में फिल्मी कैरियर का प्रारंभ। पुनर्मिलन, सिन्दूर, राजा, कुंवारा बाप, मयूरपंख, बुजदिल, सपना, कालीघाट, हेमलेट, सावन आया रे जैसी फिल्मों मे नायक। विश्व प्रतिष्ठित कॉन फिल्म फेस्टीवल के लिए फिल्म मयूर पंख का चयन। सन् 1948 में निर्मित नदिया के पार में दिलीप कुमार के साथ अपने जमाने के लोकप्रिय अभिनेत्री कामिनी कौशल के अभिनय में छत्तीसगढ़ी वेशभूषा, संवाद और गीतों को जीवंत कर एक नये जमाने की शुरूआत की नींव रखी। सिम्पा द्वारा आपकी फिल्म सिंदूर, बेस्ट फिल्म तथा बेस्ट डायरेक्टर के रूप में सम्मानित। कालीघाट, बुजदिल, साजन, दिल अपना और प्रीत पराई, बिजली, पूनम की रात, हरे कांच की चूड़ियां जैसी फिल्मों के लिए पटकथा लेखन, निर्माण एवं निर्देशन में किशोर साहू की प्रतिभा, मौलिकता और समर्पण की छवि छत्तीसगढ़ की अस्मिता का प्रतिक है। इनके प्रेरक कार्यो को दृष्टिगत रखते हुए छत्तीसगढ शासन ने उनकी स्मृति में हिन्दी/छत्तीसगढ़ी सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देंशक एवं सिनेमा में रचनात्मक लेखन, निर्देंशन, अभिनय, पटकथा तथा निर्माण के क्षेत्र में किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण स्थापित किया गया है।

छत्तीसगढ़ी संगीत के ‘कालजयी’ संगीतकार एवं भीष्म पितामह कहे जाने वाले खुमान साव ने लोक सांस्कृतिक मंच ‘‘चंदैनी गोंदा’’ के माध्यम से आजीवन, लोक गीत व संगीत को सहेजने और संवारने में लगे रहे। अपनी कला से उन्होंने,छत्तीसगढ़ के लोक संगीत को नई पहचान दी। संगीत के माध्यम से छत्तीसगढ़ी माटी की खुशबू को उन्होंने भारत समेत पूरे विश्व में फैलाया। छत्तीसगढ़ की समृद्ध लोक सांस्कृतिक परंपरा में रचे बसे गीतों और विलुप्त होती लोक धुनों को संजोने का भी काम किया। यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ी रचनाओं को स्वरबद्ध कर, उन्हें फिल्मी गीतों की तरह जन-जन तक पहुंचाने वाले खुमान साव ही थे। आपका जन्म 5 सितम्बर 1929 को डोंगरगांव के समीप खुर्सीटिकुल नामक गांव में एक सम्पन्न मालगुजार परिवार में हुआ था। ग्यारह वर्ष की आयु में नाचा के युग पुरूष दाऊ मंदराजी के साथ जुड़कर, नाचा दल में संगत किये थे। पश्चात् प्रदेश की लोक कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए चंदैनी-गोंदा संस्था की स्थापना की। आज छत्तीसगढ़ की लोकगीत, लोक संगीत समृद्ध एवं संरक्षित है तो वह खुमान साव की संगीत की तपस्या का फल है। संगीत के क्षेत्र में उनके विशेष योगदान के लिए, भारत सरकार ने उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। खुमान साव की विलक्षण प्रतिभा उनकी संगीत साधना और मंच पर पांच हजार प्रस्तुतियाँ रही हैं। लोक संगीत, सुगम संगीत और शास्त्रीय संगीत के साव जी बेजोड़ साधक थे। रामचन्द्र देशमुख जी के साथ मिलकर, चंदैनी-गोंदा को देश के अनेक-अनेक प्रतिष्ठापूर्ण मंचों पर प्रदर्शन किया। चंदैनी-गोंदा के मंचन में उनकी संगीत साधना का श्रम, छत्तीसगढ़ की अस्मिता को संरक्षित करने का एक विकल्प साबित हुआ। 09 जून, 2019 को 90 वर्ष की आयु में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उनकी स्मृति में "खुमान साव सम्मान" स्थापित किया गया है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में जनजातीय क्षेत्रों के कई अज्ञात क्रांतिकारियों में से, बुंचर का ब्रह्मांड एक चमत्कारी चरित्र है। आप बस्तर के नेटतर गांव में पैदा हुए थे। धूर्व जाति का यह बहादुर युवक 1910 के जनजातीय विद्रोह का मुख्य व्यक्ति था। इस समय, अंग्रेजों के भयानक शासन के खिलाफ, जोरोशा बस्तर में भूकंप के रूप में दिखाई दिया। इस विद्रोह के केंद्र में आपके अतुलनीय साहस और रणनीति को उजागर किया गया था। 1 फरवरी, 1910 को पूरे बस्तर में विद्रोह हुआ था। आपके नेतृत्व में, ब्रिटिश संस्थानों को उखाड़ फेंकने के लिए सरकारी संस्थानों और संपत्तियों को लक्षित किया गया था।

मुराट सिंह बख्शी, बलप्रसाद नजीर, वीरसिंह बंदर और लाल कलिंदरी सिंह की मदद से, आपने विद्रोह का कुशल संचालन किया। लाल मिर्च और आमों के टहलने का इस्तेमाल विद्रोह के संदेश गांवों और गांवों में परिवहन के लिए किया जाता था। विद्रोह में, जब ब्रिटिश समर्थक ब्रिटिश संचार प्रणाली को नष्ट कर डर गए, मेजर गेरे और डी ब्रेट को रायपुर से बस्तर जाना पड़ा। अंग्रेजों ने क्रूरता से ग्रामीणों को मार डाला और कई निर्दोष लोगों को फांसी दी। विद्रोह मई 1910 तक कुचल दिया गया था।

आप अपने सहयोगियों को मिलते हैं और अमारन गांव में अंग्रेजों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, लेकिन इस बार एक धोखेबाज ने आपकी जानकारी अंग्रेजों को दी। आप सभी से घिरे थे लेकिन सैनिकों की बंदूकें का सामना कर रहे थे, आप भाग गए। अंग्रेजों ने बस्तर के उदारवादी कुश्ती की, लेकिन आप अंत तक पकड़े नहीं गए।

गुंडधुर एक महान सेनानी थे, जो गुरिल्ला युद्ध में जानकार थे और एक देशभक्त थे, साथ ही जनजातियों के पारंपरिक हितों से अवगत थे। गाने और गीतों में आपके वीरता का विवरण आपका बलिदान और बलिदान यादगार और प्रेरणादायक है। छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी याद में साहसिक और खेल के क्षेत्र में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए बहुत सम्मान किया है।

छत्तीसगढ़ की संत परंपरा में गुरु घासीदास का नाम सर्वोपरि है । आपका जन्म 18 दिसम्बर 1756 को रायपुर जिले के गिरौद ग्राम में हुआ था । आपकी माता का नाम अमरौतिन तथा पिता का नाम मंहगूदास था । बाल्याकाल से ही आपके हृदय में वैराग्य का भाव प्रस्फुटित था । समाज में व्याप्त पशुबलि तथा अन्य कुप्रथाओं का आप बचपन से ही विरोध करते रहे । समाज को नई दिशा प्रदान करने में आपका योगदान अतुलनीय है । सत्य से साक्षात्कार आपके जीवन का लक्ष्य था ।

भंडापुरी आकर आप सतनाम का उपदेश निरंतर देने लगे, आपके सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रुप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निष्ध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना, है ।

आपके उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ । सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में सफल हुए और छत्तीसगढ़ में आप द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ के आज लाखों अनुयायी हैं ।

आपका जीवन दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा । आप आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु हैं । आपका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना एवं सामाजिक न्याय के क्षेत्र में गुरु घासीदास सम्मान स्थापित किया है ।

चन्दूलाल चन्द्राकर का जन्म 1 जनवरी 1921 को दुर्ग जिले के निपानी गांव के कृषक परिवार में हुआ । आप बाल्यावस्था से ही मेधावी रहे । दुर्ग में प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ग्रामिणों की समस्या का समाधान करने में भी आप सदैव तत्पर रहते थे । राजनीति के पूर्व आप सक्रिय पत्रकारिता से जुड़े । द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से आप अभ्यस्त पत्रकारों जैसी सधी पत्रकारिता करने लगे ।

1945 से पत्रकार के तौर पर आपकी ख्याति होने लगी । आपके समाचार हिन्दुस्तान टाइम्स सहित देश-विदेश के अन्य अखबारों में प्रकाशित होने लगे । आपको नौ ओलंपिक खेलों और तीन एशियाई खेलों की रिपोर्टिंग का सुदीर्घ अनुभव रहा । राष्ट्रीय अखबार दैनिक हिन्दुस्तान में संपादक के रुप में आपने सेवाएं दी । छत्तीसगढ़ से राष्ट्रीय समाचार पत्र के संपादक पद पर पहुंचने वाले आप प्रथम थे । युद्धस्थल से भी आपने निर्भीकतापूर्वक समाचार भेजे । आपने विश्व के लगभग सभी देशों की यात्रा पत्रकार के रुप में की ।

1970 में पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित होने के साथ ही सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने की शुरुआत हुई और लोकसभा हेतु पांच बार निर्वाचित हुए । पर्यटन, नागरिक उड्डयन, कृषि, ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री का दायित्व संभालते हुए आपने देश की सेवा की । अखिल भारतीय कमेटी के महासचिव और मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता के रुप में आप सक्रिय रहे । छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण सर्वदलीय मंच के अध्यक्ष रह कर राज्य आंदोलन को नई शक्ति प्रदान की ।

अपनी लेखनी से ज्वलंत मुद्दे उठाने, बहस की गुंजाइश तैयार करने वाले पत्रकारों में चन्दूलाल चंद्राकर को सम्मानजनक स्थान प्राप्त है । 2 फरवरी 1995 को आपका निधन हुआ । निर्भीक पत्रकारिता से छत्तीसगढ़ का नाम देश में रोशन करने वाले व्यक्तित्व से नई पीढ़ी प्रेरणा ग्रहण करे और मूल्य आधारित पत्रकारिता को प्रोत्साहन मिले, इसके लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में पत्रकारिता के क्षेत्र में चन्दूलाल चन्द्राकर फेलोशिप स्थापित किया है ।

छत्तिसगढवासियों में अपनी माटी के प्रति असीम प्रेम और अगाध श्रद्धा है । महापुरूषों की जन्मभूमि, कर्मभूमि के साथ इस भूमि में विभूतियों की प्रेरणा का संस्कार परिलक्षित होता है । समय के साथ छत्तिसगढवासियों ने राज्य और देश की सीमा से आगे बढ कर विदेशों में भी अपनी प्रतिभा, लगन एवं मेहनत के बल पर महत्तवपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई और अपनी पहचान कायम रखते हुए ऐसी जगह भी बना ली, जिस पर राज्य को गर्व है । उस "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना का परिचय छत्तिसगढ की अस्मिता में भी घुला-मिला है ।

छत्तिसगढवासी, अप्रवासी भारतीयों ने अपने कार्य कौशल, परिश्रम के साथ देश के बाहर सामाजिक कल्याण, मानव संसाधन विकास, कला, साहित्य अथवा आर्थिक क्षेत्र में स्वयं को स्थापित करते हुए उल्लेखनिय कार्य किया है तथा छत्तिसगढ राज्य को भी देश के बाहर प्रतिष्ठामंङित करने के लिए छत्तिसगढ शासन ने छत्तिसगढ अप्रवासी भारतीय सम्मान स्थापित किया है ।

छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलन के सूत्रधार तथा सहकारिता आंदोलन के प्रणेता ठाकुर प्यारेलाल का जन्म 21 दिसम्बर 1891 को राजनांदगांव जिले के दैहान ग्राम में हुआ । पिता का नाम दीनदयाल सिंह तथा माता का नाम नर्मदा देवी था । आपकी शिक्षा राजनांदगांव तथा रायपुर में हुई । नागपुर तथा जबलपुर में आपने उच्च शिक्षा प्राप्त कर 1916 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की । बाल्यकाल से ही आप मेधावी तथा राष्ट्रीय विचारधारा से ओत-प्रोत थे ।

1906 में बंगाल के क्रांतिकारियों के संपर्क में आकर क्रांतिकारी साहित्य के प्रचार आरंभ किया और विद्यार्थियों को संगठित कर जुलूस के समय वन्देमातरम् का नारा लगवाते थे । 1909 में सरस्वती पुस्तकालय की स्थापना की । 1920 में राजनांदगांव में मिल-मालिकों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई, जिसमें मजदूरों की जीत हुई । आपने स्थानीय आंदोलनों और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जन-सामान्य को जागृत किया ।

1925 से आप रायपुर में निवास करने लगे । आपने छत्तीसगढ़ में शराब की दुकानों में पिकेटिंग, हिन्दू-मुस्लिम एकता, नमक कानून तोड़ना, दलित उत्थान जैसे अनेक कार्यो का संचालन किया । देश सेवा करते हुए आप अनेक बार जेल गए । मनोबल तोड़ने के लिए आपके घर छापा मारकर सारा सामान कुर्क कर दिया गया, परन्तु आप नहीं डिगे ।

राजनैतिक झंझावातों के बीच 1937 में रायपुर नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए । 1945 में छत्तीसगढ़ के बुनकरों को संगठित करने के लिए आपके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी संघ की स्थापना हुई । प्रवासी छत्तीसगढ़ियों को शोषण एवं अत्याचार से मुक्त कराने की दिशा में भी आप सक्रिय रहे । वैचारिक मतभेदों के कारण सत्ता पक्ष को छोड़कर आप आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर पार्टी में शामिल हुए ।

1952 में रायपुर से विधानसभा के लिए चुने गए तथा विरोधी दल के नेता बने । विनोबा भावे के भूदान एवं सर्वोदय आंदोलन को आपने छत्तीसगढ़ में विस्तारित किया । 20 अक्टूबर 1954 को भूटान यात्रा के समय अस्वस्थ हो जाने से आपका निधन हो गया । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सहकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए ठाकुर प्यारेलाल सिंह सम्मान स्थापित किया है ।

डॉ. खूबचंद बघेल का सम्पूर्ण जीवन समाज और कृषकों के कल्याण तथा विभिन्न रचनात्मक कार्यो के लिए समर्पित था । आपका जन्म रायपुर जिले के पथरी ग्राम में 19 जुलाई 1900 को हुआ था । पिता का नाम जुड़ावन प्रसाद तथा माता का नाम केकती बाई था । आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में तथा हाईस्कूल की पढ़ाई रायपुर में हुई । 1925 में नागपुर से चिकित्सा परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् असिस्टेंट मेडिकल आफिसर के रुप में कार्यरत रहे ।

नागपुर में अध्ययन के समय से आप राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित होकर राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने लगे । महात्मा गांधी से प्रभावित होकर गांव-गांव में घूमकर असहयोग आंदोलन का प्रचार किया । 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान शासकीय नौकरी छोड़कर आन्दोलन में शामिल हो गए । 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में तीसरी बार जेल गए । 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में आपको फिर ढाई वर्ष की कठोर कैद हुई । 1951 में कांग्रेस मतभेद की वजह से आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर पार्टी में शामिल हो गए ।

आप 1951 में विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1962 तक सदस्य रहे । 1967 में आप राज्यसभा के लिए चुने गए । व्यवसाय से चिकित्सक होने के बावजूद आप कृषि और कृषकों की उन्नति के लिए निरंतर प्रयासरत रहे । आप छत्तीसगढ़ के अनेक आदिवासी-किसान आंदोलनों के प्रेरणा स्रोत एवं नेतृत्वकर्ता थे । आपने कृषि को उद्योग के समकक्ष विकसित करने की दिशा में अभूतपूर्व प्रयास किया । पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए, जन जागृत करने की दिशा में आप लगातार संलग्न रहे ।

साहित्य सृजन, लोकमंचीय प्रस्तुति तथा बोल-चाल में आप छत्तीसगढ़ी के पक्षधर थे । इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए आपने 1967 में रायपुर में छत्तीसगढ़ भ्रातृसंघ नामक संस्था का गठन किया । 22 फरवरी 1969 को आपका देहावसान हो गया । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में कृषि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि एवं अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के लिए डॉ. खूबचंद बघेल सम्मान स्थापित किया है ।

डॉ. भंवरसिंह पोर्ते का जन्म 01 सितम्बर 1943 को एक गरीब आदिवासी परिवार में ग्राम बदरोड़ी, मरवाही, जिला - बिलासपुर में हुआ । आपकी प्रारंभिक शिक्षा ग्राम - सिवनी में हुई । हाईस्कूल एवं उच्चत्तर माध्यमिक परीक्षा पेण्ड्रा से उत्तीर्ण की । आप विद्यार्थी जीवन से ही आदिवासी शोषण के विरुद्ध आंदोलन में भाग लेते रहे ।

सन् 1972 में प्रथम बार विधानसभा का चुनाव लड़े और विजयी हुए । आदिवासियों की सेवा भावनाओं का उद्देश्य लेकर अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद् के संस्थापक, अध्यक्ष स्व. कार्तिक उरांव की प्रेरणा से आपने मध्यप्रदेश में में आदिवासी परिषद् की स्थापना की । आपने आदिवासियों में अलख जगाया । सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के दूरस्थ आदिवासी अंचलों का दौरा कर उनके अधिकारों एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्हें सचेल किया । आप मध्यप्रदेश शासन में मंत्री भी रहे ।

तत्कालीन मध्यप्रदेश में आदिवासियों के विकास व उत्थान के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों एवं स्मृति को चिर-स्थायी बनाने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने डॉ. भंवरसिंह पोर्ते सम्मानित किया है ।

दाऊ दुलार सिंह मंदराजी का जन्म 1 अप्रैल 1910 को खेली ग्राम के सम्पन्न जमींदार परिवार में हुआ था । चार-पांच गांवों की मालगुजारी थी । आपको बचपन से गीत-नृत्य के प्रति खास लगाव था । उन दिनों गांव-गांव में खड़े साज का बोल-बाला था । खड़े साज या मशाल लेकर की जाने वाली मसलहा नाचा प्रस्तुतियों का यह संक्रमण काल था । यह प्रचलित स्वरुप विकसित होकर गम्मत-नाचा का प्रभावी रुप ग्रहण कर मंच पर स्थान बनाता गया । आपने नाचा के मंचीय विकास की यात्रा में भरपूर योगदान दिया । आपने इस विधा को विकृति से बचाते हुए परिष्कृत करने का बीड़ा उठाकर खेली गांव के मंचीय प्रदर्शन से प्रयास आरंभ किया । सक्षम कलाकारों से सुसज्जित उनकी टोली धीरे-धीरे लोकप्रियता पाने लगी । छत्तीसगढ़ी नाचा की लोकयात्रा रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, जगदलपुर, अंबिकापुर, रायगढ़ से टाटानगर तक कई छोटी-बड़ी जगहों में अपना परचम फैलाते बढ़ने लगी । रायपुर के रजबंधा मैदान में खेली दल की नाचा प्रस्तुति को आज भी याद किया जाता है ।

नाचा के माध्यम से अभिनय के क्षेत्र में मदन निषाद, लालू, भुलवाराम, फिदाबाई मरकाम, जयंती, नारद, सुकालू और फागूदास जैसे दिग्गजों को सामने लाने का श्रेय आपको है । नाचा के माध्यम से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को जीवन्त रखने और उसके समुचित संरक्षण के लिए अपना तन-मन-धन समर्पित कर दिया । जीवन का आखिरी पहर गुमनामी और गरीबी में गुजारा लेकिन आपने व्यक्तिगत लाभ-प्रशंसा की चाहत को दरकिनार कर केवल नाचा की समृद्धि को जीवन की सार्थकता माना ।

1984 को उनका निधन हो गया । प्रदर्शनकारी लोक विधा-नाचा को जीवंत रखने, जन सामान्य में उसकी पुनर्प्रतिष्ठा और लोक कलाकारों को प्रश्रय देने वाला यह व्यक्तित्व नई पीढ़ी के लिए प्रेरक है । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में लोक कला/शिल्प के लिए दाऊ मंदराजी सम्मान स्थापित किया है ।

दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 29 अप्रैल 1547 को हुआ । आप बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे । अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में आप सदैव अग्रणी रहे । आपको मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए आपका नाम इतिहास में अमर है ।

आपका निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्वपूर्ण और निर्मायक साबित हुआ । मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी । आपने यह सहयोग तब दिया जब महाराणा प्रताप अपना अस्तित्व बनाए रखने के प्रयास में निराश होकर परिवार सहित पहाड़ियों में छिपते भटक रहे थे । आपने मेवाड़ के अस्मिता की रक्षा के लिए दिल्ली गद्दी का प्रलोभन भी ठुकरा दिया । महाराणा प्रताप को दी गई आपकी हरसम्भव सहायता ने मेवाड़ के आत्म सम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी ।

आप बेमिसाल दानवीर एवं त्यागी पुरुष थे । आत्मसम्मान और त्याग की यही भावना आपको स्वदेश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने वाले देश-भक्त के रुप में शिखर पर स्थापित कर देती है । धन अर्पित करने वाले किसी भी दानदाता को दानवीर भामाशाह कहकर उसका स्मरण-वंदन किया जाता है । आपकी दानशीलता के चर्चे उस दौर में आसपास बड़े उत्साह, प्रेरणा के संग सुने-सुनाए जाते थे । आपके लिए पंक्तियां कही गई है-

वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला ।
उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला ।।

लोकहित और आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को चिरस्थायी रखने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में दानशीलता, सौहार्द्र एवं अनुकरणीय सहायता के क्षेत्र में दानवीर भामाशाह सम्मान स्थापित किया है ।

स्व. देवदास बंजारे, अंतर्राष्ट्रीय पंथी नर्तक, आधुनिक पंथी नृत्य के प्रमुख शिल्पी का जन्म 1 जनवरी 1947 को ग्राम सॉकरा, तहसील-धमतरी, जिला रायपुर में हुआ। जन्मदाता पिता श्री बोधराम गेंडरे, पालनकर्ता पिता श्री फूल सिंह बंजारे माता श्रीमती भागवती बाई एवं पत्नी श्रीमती रामबाई बंजारे तथा पुत्र श्री दिलीप कुमार बंजारे, श्री संतोष कुमार बंजारे संयुक्त परिवार के साथ ग्राम धनोरा, थाना उतई, जिला दुर्ग के निवासी थे। प्रदर्शनकारी लोक कला एवं पंथी नृत्य के माध्यम से सामाजिक कार्यक्रम का आयोजन करना एवं गीत के माध्यम से दलित, पीड़ित, शोषित जाति के लोगों में आत्म सम्मान जागृत करना एवं राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मंचों के माध्यम से जन जागरण का कार्य किया गया। अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में लंदन, पेरिस, जर्मनी, फ्रांस, रूस, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा आदि राज्यों में जाकर पंथी नृत्य एवं गीत के माध्यम से भारतीय कला एवं संस्कृति को विदेशों में प्रसारित करना, विदेशी कलाकारों के साथ कला का आदान प्रदान करना । मार्च 1972 में गिरौधपुरी मेले के कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश द्वारा स्वर्ण पदक, सन् 1975 में राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से सम्मानित एवं वर्ष 2000-2001 में दाऊ महासिंग चंद्राकर सम्मान, सन् 1997 में गृहमंत्री श्री चरण दास महंत द्वारा सम्मानित किया गया। आपका आकास्मिक निधन 26 अगस्त 2005 को सड़क दुर्घटना में हुआ। जन-चेतना जगाने और ग्रामीणों में उनके मौलिक अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न करने के प्रेरक कार्यो को दृष्टिगत रखते हुए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में छत्तीसगढ़ की लोक शैली पर आधारित प्रदर्शनकारी पंथी नृत्य के क्षेत्र में प्रतिभागियों / संस्थाओं को प्रोत्साहित एवं सम्मानित करने के उद्देश्य से राज्य स्तरीय "देवदास बंजारे स्मृति पंथी नृत्य पुरस्कार" स्थापित किया है।

छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग द्वारा छत्तीसगढ़ की लोक शैली पर आधारित पंथी नृत्य प्रदर्शनकारी लोक कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य, प्रतिभागियों/संस्थाओं को प्रोत्साहित, श्रेष्ठ उपलब्धि एवं दीर्घ साधना के मानदंडों के आधार पर कलाकार/संस्था के योगदान को मान्यता देने और प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सम्मानित करने हेतु राज्य स्तरीय ‘देवदास बंजारे स्मृति पुरस्कार’ प्रदान करती हैं।

छत्तीसगढ़़ राज्य में आज से लगभग 117 वर्ष पहले पत्रकारिता की बुनियाद रखने वाले हिन्दी भाषा के वरिष्ठतम पत्रकार और साहित्यकार स्वर्गीय पंडित माधवराव सप्रे का जन्म 19 जून 1871 को मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला दमोह) में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा छत्तीसगढ़़ के बिलासपुर मंे और हाई स्कूल की शिक्षा रायपुर में हुई। उन्होंने उच्च शिक्षा जबलपुर, ग्वालियर और नागपूर में प्राप्त की । कोलकाता विशवविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्हांेने सरकारी नौकरी नहीं करने और आजीवन हिन्दी भाषा तथा देश की सेवा करने का संकल्प लिया । सप्रे जी का व्यक्तित्व और कृतित्व साहित्यकारों और पत्रकारों सहित आम जनता के लिए भी प्रेरणादायक है।

पंडित माधव राव सप्रे ने जनवरी 1900 में श्री रामराव चिंचोलकर के साथ मिलकर छत्तीसगढ़़ के पेण्ड्रा (जिला बिलासपुर) से हिन्दी मासिक पत्रिका ”छत्तीसगढ़़ मित्र” का सम्पादन ओर प्रकाशन शुरू किया था । यह तत्कालीन छत्तीसगढ़़ राज्य में हिन्दी भाषा की पहली पत्रिका थी। इस पत्रिका में प्रकाशित सप्रे जी की कहानी ”टोकरी भर मिट्टी” को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी होने का गौरव प्राप्त है। उनहांेने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा मराठी में रचित ”गीता रहस्य” का हिन्दी अनुवाद भी किया। सप्रे जी ने राव बहादुर चिंतामणी विनायक वैध द्वारा रचित मराठी ग्रंथ ”श्रीमन्महाभारत-मीमांसा” का सरल हिन्दी में ”महाभारत मीमांसा” के नाम से अनुवाद किया।

छत्तीसगढ़़ राज्य स्वर्गीय पंडित माधव राव सप्रे जैसे महान तपस्वी और यशस्वी साहित्यकार और पत्रकार की कर्मभूमि के रूप में गौरवान्वित हुआ है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में सप्रे जी ने अपनी लेखनी से आम जनता के बीच राष्ट्रीय चेतना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए रायपुर में सन् 1912 में जानकी देवी कन्या पाठशाला की स्थापना की और वर्ष 1920 में यहां राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। सप्रे जी ने हिन्दी के साहित्यकारों को संगठित करने के लिए मई 1906 में नागपुर से हिन्दी गं्रथमाला पत्रिका का भी प्रकाशन शुरू किया, लेकिन राष्ट्रीयता से परिपूर्ण विचारों पर आधारित इस पत्रिका की बढ़ती लोकप्रियता के कारण तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सन् 1908 में इसका प्रकाशन बंद करवा दिया। इतना ही नहीं बल्कि अंग्रेज सरकार ने 22 अगस्त 1908 को उन्हें आई.पी.सी. की धारा-124 (अ) के तहत गिरफतार भी कर लिया। कुछ महीनों के बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया। तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर सप्रे जी के लगभग 200 निबंध कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। सन् 1924 में उन्हे देहरादून में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में सभापति चुना गया। पंडित माधव राव सप्रे का निधन 23 अप्रेल 1926 को रायपुर के तात्यापारा स्थित अपने निवास में हुआ।

साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके ऐतिहासिक योगदान को यादगार बनाने के लिए छत्तीसगढ़़ शासन द्वारा पंडित माधव राव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता सम्मान की स्थापना की गयी है। यह पुरस्कार मीडिया के क्षेत्र में अपने विशिष्ट रचनात्मक लेखन और हिन्दी भाषा के प्रति समर्पण भाव से कार्य करके राष्ट्र का गौरव बढ़ाने वाले साहित्यकारों और पत्रकारों को दिया जाता है।

पंडित रविशंकर शुक्ल का जन्म 2 अगस्त 1877 को सागर में हुआ था । आपकी शिक्षा सागर तथा रायपुर में हुई । स्नातक और कानून की शिक्षा प्राप्त, आप की गणना चोटी के वकीलों में होती थी । 1901 में आप शिक्षण के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए । 1902 में आप खैरागढ़ रियासत में प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए । कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद राजनांदगांव में वकालत आरंभ किया । देश-सेवा के ध्येय से आप सक्रिय राजनीति में प्रविष्ट हुए तथा रायपुर में रहने लगे । आप लोकमान्य तिलक के विचारों से प्रभावित थे एवं उनके द्वारा संचालित होम रुल आंदोलन का समर्थन किया ।

आप राजनेता होने के साथ अच्छे वक्ता और लेखक भी थे । 1921 में आपने कांग्रेस की औपचारिक सदस्यता ग्रहण की । हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए भी आप सदैव सक्रिय रहे, 1922 में नागपुर में संपन्न मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी । छत्तीसगढ़ में राजनैतिक तथा सामाजिक चेतना जागृत करने के लिए आपने 1935 में महाकोशल साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया ।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व का भार छत्तीसगढ़ में आपने संभाला था । स्वतंत्रता के पूर्व आप 1946 में राज्य विधानसभा में मध्यप्रांत के मुख्यमंत्री और पश्चात् अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने । स्वतंत्रता के बाद रियासतों के विलय में भी आपने महत्वपूर्ण योगदान दिया । आपको आधुनिक मध्यप्रदेश का निर्माता कहा जाता है ।

आप छत्तीसगढ़ में औद्योगिक क्रांति के समर्थक थे । भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना का श्रेय आपको है । रायपुर में संस्कृत, आयुर्वेद, विज्ञान और इंजीनियरींग शिक्षा के लिए महाविद्यालयों की स्थापना आपकी प्रेरणा से हुई । छत्तीसगढ़ की उन्नति और यहां सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए आपके प्रयास चिरकाल तक याद किए जाएंगे । 31 दिसम्बर 1956 को कर्मठ राजनेता, महान शिक्षाविद् तथा दूरदर्शी इस राजनेता का देहावसान हुआ । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक क्षेत्र में अभिनव प्रयत्नों के लिए पं. रविशंकर शुक्ल सम्मान स्थापित किया है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित सुंदरलाल शर्मा, छत्तीसगढ़ में जन जागरण तथा सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे । 21 दिसम्बर 1881 को राजिम के निकट महानदी के तट पर बसे ग्राम चंद्रसूर में आपका जन्म हुआ । आपकी स्कूली शिक्षा प्राथमिक स्तर तक हुई और आगे घर पर ही स्वाध्याय से आपने संस्कृत, बांगला, उड़िया भाषाएं सीख लीं । किशोरावस्था से आप कविताएं, लेख तथा नाटक लिखने लगे । कुरीतियों को मिटाने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार को आवश्यक समझते थे । आप हिन्दी भाषा के साथ छत्तीसगढ़ी को भी महत्व देते थे । आपने हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी में लगभग 18 ग्रंथों की रचना की, जिसमें छत्तीसगढ़ी दान-लीला चर्चित कृति है ।

19 वीं सदी के अंतिम चरण में देश में राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना की लहरें उठ रही थी । समाज सुधारकों, चिंतकों तथा देशभक्तों ने परिवर्तन के इस दौर में समाज को नयी सोच और दिशा दी । छत्तीसगढ़ में आपने सामाजिक चेतना का स्वर घर-घर पहुंचाने में अविस्मरणीय कार्य किया । आप राष्ट्रीय कृषक आंदोलन, मद्यनिषेध, आदिवासी आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन से जुड़े और स्वतंत्रता के यज्ञवेदी पर अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया ।

छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में व्याप्त रुढ़िवादिता, अंधविश्वास, अस्पृश्यता तथा कुरीतियों को दूर करने के लिए आपने अथक प्रयास किया । आपके हरिजनोद्धार कार्य की प्रशंसा महात्मा गांधी ने मुक्त कंठ से करते हुए, इस कार्य में आपको गुरु माना था । 1920 में धमतरी के पास कंडेल नहर सत्याग्रह आपके नेतृत्व में सफल रहा । आपके प्रयासों से ही महात्मा गांधी 20 दिसम्बर 1920 को पहली बार रायपुर आए ।

असहयोग आंदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ से जेल जाने वाले व्यक्तियों में आप प्रमुख थे । जीवन-पर्यन्त सादा जीवन, उच्च विचार के आदर्श का पालन करते रहे । समाज सेवा में रत परिश्रम के कारण शरीर क्षीण हो गया और 28 दिसम्बर 1940 को आपका निधन हुआ । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में साहित्य/आंचिलेक साहित्य के लिए पं. सुन्दरलाल शर्मा सम्मान स्थापित किया है ।

बिलासा केवटिन का जन्म अरपा नदी के किनारे हुआ था । 16वीं शताब्दीं अपने शौर्य और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध बिलासा के नाम से बिलासा मछुवारों की गुमनाम बस्ती में जन्मी अत्यंत रुपवान केवट कन्या थी । बिलासा से संबंधित लोक कथाओं में उल्लेख है कि एक बार किसी राजा ने उसके स्वाभिमान पर प्रहार करना चाहा । देवार गीतों में उसके श्रृंगार का विवरण मिलता है -

खोपा पारय रिंगी - चिंगी
ते मां खोंचय सोन के सिंगी
गीत में अतिश्योक्ति है - 'रुप के माची, सोन के पर्रा'

केवटिन के काव्यात्मक कथन में तत्कालीन समाज का चरित्र और स्वभाव उभरता है, जिसमें सोलह जातियों का साम्य सोलह जाति की मछलियों से बताते हुए, केवटिन की सामाजिक संरचना की समझ और वाक्पटुता उजागर होती है । केवटिन की वाक्चातुर्य के लिए पंक्तियां हैं, 'धुर्रा के मुर्रा बनाके थूंक मं लाडू बांधय'

केवट जाति में पैदा होना तथा मत्स्याखेट में सलग्न रह कर इतिहास में चर्चित होने की वजह से समाजवासियों के मध्य वह आज भी सम्मानित है । बिलासा केवटिन के इतिहास से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ के मछुवारों के विकास एवं मत्स्य पालन को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य शासन ने सन 2006 से श्रीमती बिलासाबाई केवटिन पुरस्कार की घोषणा की ।

बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल का जन्म सन् 1886 में छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा ज़िले के अकलतरा नगर के जमीदार परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री पचकोड सिंह था।

बैरिस्टर छेदीलाल प्रयाग के म्योर कॉलेज से इंटरमीडिएट करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफोर्ड चले गए। वहां पर उन्होंने इतिहास में एम.ए., एल.एल.बी. और बार-एट-लॉ की उपाधि प्राप्त की। उन्हे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत की भाषा में वे काफी निपुण थे।

सन् 1919 से वे स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। सन् 1921 में बनारस वि.वि और सन् 1922 में गुरुकुल कांगड़ी में कुछ समय तक अध्यापन का कार्य भी किया।

इसके बाद सन् 1926 तक प्रयाग की सेवा समिति में संचालक के रूप में रहे। उन्होंने अपनी विद्वता से कानून के क्षेत्र में बहुत कीर्ति अर्जित की। लेकिन उनका राष्ट्र प्रेमी मन शीघ्र ही विचलित हो गया और वे वकालत छोड़ कर सक्रिय राजनीति में उतर गए।

शुरुआत में उनका झुकाव स्वराज्य पार्टी की ओर रहा लेकिन सन् 1928 में उन्होंने गांधी जी से प्रभावित होकर कांग्रेस की ओर अपना रास्ता चुन लिया। बिलासपुर अंचल में जागृति फैलाने के लिए उन्होंने रामलीला के मंच से राष्ट्रीय रामायण का अभिनव प्रयोग किया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने मुंगेली के किसान कतनामियों को राजनीति में लाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनका का कार्य मुख्य रूप से जनता के बीच में था।

सन् 1937 के प्रांतीय चुनावों में वह सेन्ट्रल प्रॉविंस (मध्य प्रांत) से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विजय होने पर विधायक चुने गए। कानूनी विद्वान् होने के कारण उन्हें, (1946-50) तक भारतीय सविधान सभा के सदस्य के रूप चुना गया, तथा (1950-52) तक वह अस्थायी संसद के सदस्य मनोनीत किये गए। वर्ष सन् 1953 में उनकी मृत्यु हो गई।

मध्यप्रदेश विभाजन के बाद उन्हें छत्तीसगढ़ में पहला बैरिस्टर कहा जाता है। इनकी स्मृति में ‘‘बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल सम्मान’’ स्थापित किया है।

मधुकर खेर का जन्म 12 फरवरी, 1928 को रायपुर में हुआ । एम. ए. राजनीतिशास्त्र करने के उपरान्त पत्रकारिता का प्रारम्भ - 1948 में साप्ताहिक युगधर्म नागपुर एवं हिदुस्तान समाचार महाकोशल से । 1950 से दैनिक युगधर्म नागपुर तथा अंग्रेजी दैनिक नागपुर टाइम्स । दैनिक हितवाद, इंडियन एक्सप्रेस मुंबई, इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली तथा विजयानगरम् तीनों का स्वतंत्र प्रतिनिधित्व किया । टाइम्स ऑफ इंडिया मुम्बई दि टेलीग्राफ कोलकता, मध्यप्रदेश क्रॉनिकल, भोपाल नेशनल हेराल्ड, मदरलैंड, गुजराती, जन्मभूमि तथा समाचार एजंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के संवाददाता 1953 से रहे ।

टाइड मुम्बई, मार्च ऑफ नेशन, करेन्ट, ब्लिट्ज, आर्गनाइजर, संडे (कोलकता) एनलाइट (बड़ौदा) ज्वाला (नागपुर) स्व. के.पी. नारायणन द्वारा प्रकाशित मिडलैंड (भोपाल) द वीक, ऑनलूकर (मुम्बई) धर्मयुग तथा इल्युस्ट्रेटेड वीकली की मांग पर अनेकों बार विशेष रिपोर्ट लिखी ।

पूर्ववती मध्यप्रदेश में श्रमजीवी पत्रकार संघ (विदर्भ) के संस्थापक सदस्य एवं रायपुर श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापक सदस्य रहे । स्थापना 1950-51 में दु्र्ग तथा रायपुर शाखाओं का गठन । पत्रकारिता में व्यक्तिगत विचार से परहेज किया । इसलिए नई दिल्ली के नेशनल हेराल्ड और मदरलैंड जैसे परस्पर विरोधी पत्रों का प्रतिनिधित्व करते रहें, दोनों के संपादकों की जानकारी में । परिवार में उन दिनों पत्रकारिता में कम आय होने पर भी पूज्य स्व. विट्ठलराव खेर तथा माता स्व. श्रीमती मनोरमा खेर द्वारा प्रोत्साहन मिलता रहा । पूरा परिवार पत्रकारिता में रूचि लेता है । ज्येष्ठ भ्राता कमलाकर खेर, सुपुत्र मिलिंद खेर, सुपुत्री श्रीमती ममता गोवर्धन पत्रकारिता में ही हैं । सन 1963 में एक साप्ताहिक नभ निकाला था । माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के आग्रह पर संवाददाता नामक एक पुस्तिका लिखी जो उनके द्वारा पाठ्यक्रम के लिए स्वीकृत की गई ।

पत्रकारिता के अतिरिक्त एकांकी नाटक, लेख तथा फीचर लिखने का शौक रहा । जिनका प्रकाशन धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सरिता, आजकल, कादम्बिनी आदि में होता रहा । आकाशवाणी से भी कहानियां प्रसारित थी ।

पत्रकारिता के लिए श्री खेर को केडिया पत्रकारिता पुरस्कार रायगढ़ तथा नन्दकुमार पाठक स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार, मध्य भारत परिदृश्य द्वारा दिया गया । पूर्व में बलराज साहनी मेमोरियल पत्रकारिता एवार्ड को इस स्पष्टीकरण के साथ विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था कि उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत कुछ करना है । 31 मार्च 1996 को संक्षिप्त बीमारी के बाद । रायपुर प्रेस-क्लब भवन का नामकरण उनकी स्मृति में स्व. मधुकर खेर स्मृति भवन किया गया है ।

छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया- अंग्रेजी के क्षेत्र में मधुकर खेर स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार स्थापित किया है ।

बस्तर की आत्म बलिदानी विभूतियों में राजकुल के महाराज प्रवीरचन्द्र भंजदेव का नाम ज्योर्तिपुंज के समान देदीप्यान है। आपका जन्म 25 जून 1929 को दार्जिलिंग में हुआ था। आपकी माता का नाम प्रफुल्लकुमारी देवी तथा पिता का नाम प्रफुल्लचन्द्र भंजदेव था। लालन-पालन तथा शिक्षा पाश्चात्य प्रभाव में हुई परन्तु आपका अंतःकरण भारतीयता से ओत-प्रोत था।

आदिवासी हितों, उन्हें संगठित करने के साथ-साथ उनकी संस्कृति और अधिकार की रक्षा के लिए आप अंतिम सांस तक तत्पर रहे।

आपके आकर्षक व्यक्तित्व में सरलता, उदारता तथा आत्मगौरव झलकता था। आप अध्ययनशील, विचारक तथा विनम्र साधक थे। राजवंश से संबंधित होते हुए भी आपको किंचित मात्र अभिमान नहीं था और उदारतापूर्वक सभी की सहायता करते थे। आपके कार्य और चिंतन में बस्तर के सिधे और सरल आदिवासियों का उत्थान सर्वोपरि रहा।

सत्ता के प्रति आप कभी आकर्षित नहीं हुए तथापि आदिवासी मांझी-मुखिया तथा महिलाओं को सदैव लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाग लेने के लिए प्रेरित करते रहे। प्रकृति तथा वन्य जीवन से आपको असीम अनुराग था।

आप साहित्य, इतिहास तथा दर्शन शास्त्र के गम्भीर अध्येता तथा हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के जानकार थे। आपने हिन्दी तथा अंग्रेजी में पुस्तकें भी लिखी। योग के वैज्ञानिक आधार को प्रतिप्रादित करने के लिए भी प्रयासरत रहे। अश्वारोहण, टेनिस आदि खेल आपको प्रिय थे तथा विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं के लिए उदारतापूर्वक सहयोग करते थे। राष्ट्रीय विचारों का आदर तथा अन्याय का प्रखर विरोध करते थे । आपकी लोकप्रियता विरोधियों के लिए चुनौती थी ।

बस्तर के इस यशस्वी सपूत ने सामाजिक अन्याय एवं जीवन मूल्यों के दमन से संघर्ष करते हुए योद्धा की भांति 25 मार्च 1966 को प्राण न्यौछावर किया । आप जीवन भर शस्त्र और शास्त्र के उपासक, आदिवासियों के अधिकार तथा व्यवस्था के लिए संघर्षरत, अविचलित व्यक्तित्व के धनी थे और मरणोपरांत भी बस्तर में सम्मानित हैं । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में तीरंदाजी के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव सम्मान स्थापित किया है ।

युगदृष्टा महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहां सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ माना जाता है । आप बाल्यकाल से ही अत्यन्त दयालु, उदार तथा सहिष्णु प्रवृत्ति के थे । आपका विवाह नागराज महिधर की कन्या से स्वयंवर रीति से हुआ था । 35 वर्ष की आयु में अग्रोहा साम्राज्य की नींव डाली, आपके राज्य में अहिंसा का पालन, मानव समता, श्रम, पुरुषार्थ तथा समन्वय की भावना से सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः तथा समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति को समाज की मुख्य धारा सो जोड़ना सर्वोपरि था ।

आपका जीवन त्याग, तपस्या एवं मर्यादापूर्ण रहा । आपने तत्कालीन यज्ञों में प्रचलित हिंसा का त्याग कर 18 महायज्ञों का आयोजन किया । माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई ।

हिंसारहित समाज की अवधारणा के साथ-साथ आपने भातृत्व और मैत्री भाव को मानव कल्याण के लिए संस्थापित किया, जिससे समग्र समाज समुन्नत हो सके । अपने राज्य में एक ईंट एक मुद्रा का उद्घोष किया, जिसमें सक्षम व्यक्ति सामाजिक दायित्व के तहत अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को सहयोग करे । मानव कल्याण की आपकी अंतर्निहित विचारधारा ने समतामूलक समाज का बीजारोपण कर परस्पर सहयोग से समाजवादी व्यवस्था विकसित की ।

आपके अग्र राज्य की नीति जियो और जीने दो मानवता का महान संदेश है । आपने निज स्वार्थ का परित्याग कर परमार्थ का रास्ता अपनाया और कृषक जीवन की प्रतिष्ठा, श्रम की महिमा, शोषणविहीन समाज, पशुबलि विरोध, ऊंच-नीच के भेदभाव का उन्मूलन, नारी चेतना, अनेकता में एकता आदि मूल्यों को समाज में प्रतिष्ठित किया ।

आप मानव-मात्र के उत्थान के साधक थे और परस्पर सहयोग द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को मानव कल्याण के लिए, दायित्व निर्वहन हेतु पथ-प्रदर्शन तथा आह्वान करते रहे । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक समरसता के क्षेत्र में स्तुत्य कार्यो के लिए महाराजा अग्रसेन सम्मान स्थापित किया है ।

महाराजा रामानुज प्रताप सिंहदेव का जन्म वर्ष 1901 में हुआ था । आपके पिता का नाम शिवमंगल सिंहदेव एवं माता का नाम रानी नेपाल कुंवर था । वर्ष 1660 के आस-पास आपका परिवार मैनपुरी से कोरिया स्टेट में स्थापित हुआ । वर्ष 1920 में छोटा नागपुर की राजकुमारी दुर्गादेवी के साथ आप वैवाहिक सूत्र में बंधे । आप बाल्यकाल से ही प्रतिभावान एवं देश-प्रेमी के रुप में विख्यात रहे । आपकी प्राथमिक शिक्षा राजकुमार कॉलेज, रायपुर में तथा स्नातक की उपाधि वर्ष 1924 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई जहां पं. मोतीलाल नेहरु तथा पं. जवाहरलाल नेहरु के सम्पर्क में आये तथा इन विभूतियों के सानिध्य में ही आपको देश-भक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई ।

आपने 1931 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधी के साध सदस्य के रुप में भाग लिया । देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के दोहन एवं कारखाना क्षेत्र के श्रमिकों के प्रति संवेदनशील रहने के कारण तत्कालीन कोरिया स्टेट में आपके अथक प्रयासों से वर्ष 1928 में कोयला खदान खरसिया एवं चिरमिरी में प्रारंभ किया गया । वर्ष 1941 में कोरिया स्टेट में संचालित शिक्षण संस्थानों में कक्षा आठवीं तक के बच्चों को मध्यान्ह अल्पाहार में गुड़ - चना देना प्रारंभ किया गया । वर्ष 1946 में पंचायती राज कोरिया स्टेट में प्रथम बार लागू किया गया । शिक्षा के क्षेत्र में यहां संचालित शेक्षणिक केन्द्रों में से 64 केन्द्रों में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम लागू किया गया, आप प्रत्येक शिक्षण केन्द्र का वर्ष में दो बार निरीक्षण स्वयं करते थे । इसी वर्ष कोरिया स्टेट के शहरी क्षेत्रों में कक्षा 5वीं तक अनिवार्य शिक्षा लागू की गई ।

श्रमिकों के प्रति अति संवेदनशील होने के कारण वर्ष 1947 में कोरिया स्टेट द्वारा न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (कोरिया अवार्ड) पारित किया गया । आपके द्वारा सेन्ट्रल प्राविंस एवं बरार राज्य संविलयन के दौरान वर्ष 1948 में कोरिया स्टेट खजाने की रुपये 1.20 करोड़ की राशि जमा कराई गई । आपका देहावसान 6 अगस्त 1954 को हुआ । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में श्रम एवं उत्पादकता वृद्धि के क्षेत्र में अभिनव प्रयत्नों के लिये महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव सम्मान स्थापित किया है ।

माता बहादुर कलारिन की ऐतिहासिक कर्मस्थली ग्राम सोरर (सरहरगढ़) तहसील गुरूर जिला बालोद छत्तीसगढ़ है। प्राचीन समय में सोरर को सरहरगढ़ के नाम से जाना जाता था। लगभग चौदहवी शताब्दी में कलावती नाम की कलार जाति वैश्य महिला थी, जो वनौषधि एवं कंद मूल तथा आसवो पर अच्छी रूचि एवं ज्ञान रखती थी। अपने यौवनावस्था में ही वनौषधि से बीमार, असहाय एवं घायलों की देखभाल सेवा कर कर्तव्य निर्वहन करती थी, परन्तु एक दिन कोई राजा संध्याकालीन बेला में छछान माने बाज छूट जाने से राजा घायल अवस्था में कलावती देवी के घर में जलते हुए दीपक की सहारे से उसके निवास तक पहुंचकर अपना इलाज कराया एवं उसके रूप यौवनावस्था पर मुग्ध हो गया। जिसके संसर्ग से एक पुत्र की प्राप्ति हुई। ईलाज के पश्चात् राजा अपने राज्य में वापस आकर कलावती देवी को भूल गया। माता बहादुर कलारिन का पुत्र छछान जब बाल्यावस्था से बड़ा हुआ तो अपने पिता के संबंध में जानकारी चाहा गया। तब माता बहादुर कलारिन उसे स्पष्ट तथा पूरी जानकारी नहीं दे पायी, तब पुत्र

छछान छाडू ने आसपास की 147 राज कन्याओं को बंदी बना लिया तथा अपने माता के सम्मान की रक्षा करने के उद्देश्य को पूरा करना चाहा। माता बहादुर कलारिन ने उन राज कन्याओं में से किसी एक से विवाह कर अन्य राज कन्याओं को मुक्त करने को कहा तब पुत्र छछान छाडू ने इंकार कर दिया। पुत्र छछान छाडू के उक्त कार्यों से आहत होकर नारी सम्मान एवं सद्भाव के लिए माता बहादुर कलारिन ने अपने पुत्र को होली के दिन बावली में धकेलकर बलिदान कर नारी सम्मान को उत्कृष्ठ मान दिया तथा बंदी राजकन्याओं को मुक्त किया। इस प्रकार कलावती देवी, माता बहादुर कलारिन के नाम से विख्यात हुई। वर्तमान में छछान (जटायु) गोत्र कलार समाज में है।

कलार समाज में शिक्षा, संस्कृति एवं समाज कल्याण के क्षेत्र में उक्तकृष्ट कार्य के लिए ‘‘माता बहादुर कलारिन सम्मान’’ स्थापित किया है।

सामाजिक और सांस्कृतिक जागृति के प्रणेता यति यतनलाल जी का जन्म सन् 1894 में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को बीकानेर में हुआ था । मात्र 6 माह की आयु में आपके माता-पिता का देहावसान हो गया । उसके बाद गुरु बाह्यमल ने पुत्रवत् पालन-पोषण किया । ढाई वर्ष की उम्र में अपने गुरु के साथ रायपुर आ गए । अल्पायु में ही आप गणित और भाषा में प्रवीण हो गए । संस्कृत साहित्य और इतिहास आपका प्रिय विषय था । उन्नीस वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की और 1919 में राजनीति से जुड़ गए ।

आरंभ से ही रचनात्मक कार्यों के माध्यम से आप जन-जागरण के लिए निरंतर प्रयासरत रहे और दलित उत्थान व उन्हें संगठित करने के उद्देश्य से गांव-गांव में घूमकर हीन भावना दूर करने के लिए अथक प्रयास किया । कुरीतियों और बुराईयों से जूझते हुए हर पल आपको विरोध का सामना करना पडा, लेकिन साहस और संकल्प के साथ उद्यम में जुटे रहे ।

1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रचार कार्य में संयोजक तथा नगर प्रमुख के रुप में आपने महत्वपूर्ण योगदान दिया । शराब की दुकानों के सामने पिकेटिंग के संचालन में भी यथेष्ठ भूमिका रही । महासमुंद तहसील में जंगल सत्याग्रह के आप सूत्रधार रहे तथा गिरफ्तार किए गए ।

1933 में आप हरिजन उद्धार आंदोलन के प्रचार में सक्रिय हो गए । महात्मा गांधी के निर्देशानुसार आपने 1935 में ग्रामोद्योग, अनुसूचित जाति उत्थान और हिन्दू -मुस्लिम एकता की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए । स्वतंत्रता आंदोलन में आपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अनेक बार जेल गए । आप ग्रामीण जनता के उत्थान के लिए सदैव कटिबद्ध रहे और ग्रामोद्योग के महत्व का प्रचार करने में संलग्न रहे ।

4 अगस्त 1976 को आपका निधन हो गया । आप श्रेष्ठ वक्ता, लेखक, समाज सुधारक थे । छत्तीसगढ़ में अहिंसा के प्रचार में अविस्मरणीय योगदान को दृष्टिगत रखते हुए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में अहिंसा एवं गौ-रक्षा में यति यतनलाल सम्मान स्थापित किया है ।

करूणामाता जी का जन्म केवटा डबरी के मालगुजार रतिराम जी के घर में हुआ। वे संस्कारी होने के साथ ही गृह कार्यों में दक्ष, बुद्धिमान, स्वभिमानी स्वभाव की थी। करूणामाता का विवाह पुज्यनीय गुरु घासीदास जी के परपोते गुरुगोसाई अगमदास जी के साथ सन् 1935 में हुआ था।

गुरुगोसाई अगमदास जी (सांसद) के सतलोक गमन के पश्चात राजराजेश्वरी करूणामाता सामाजिक कार्यों में लीन रहीं। भारत में आजादी के पूर्व से ही सतनामी समाज के महिलाओं को पुरुषो के समान अधिकार प्राप्त है। राजराजेश्वरी करूणामाता सतनामधर्म सभाओं में स्त्री व पुरुष को जीवन रूपी रथ के दो पहिया बतलाकर नारी जाति के सम्मान व स्वाभिमान के लिए आवाज उठाकर समाज में महिलावर्ग का उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

माता जी ने समाज में फिजूल खर्च को रोकने तपोभूमि गिरौदपुरी में सामुहिक आर्दश विवाह की शुरूआत किया जहां माता जी के मार्गदर्शन में हजारों सामाजिक शादियां बड़ी ही सादगी के साथ कराई, जो आज भी अनवरत जारी है। आज सभी धर्म व सम्प्रदाय के लोग सामुहिक आदर्श विवाह का आयोजन कर समय व धन की बचत कर रहे हैं। 31 अगस्त सन् 2006 को माता जी पंचतत्व में विलिन हो गई। राजराजेश्वरी करूणामाता जी का पूरा जीवन समाज सुधार, मानव कल्याण व समाज में एकता तथा सतनामधर्म हेतु समर्पित रहा।

हाथकरधा के क्षेत्र में सूती वस्त्र उत्पादन की पारंपरिक कला, संस्कृति की अनुपमा को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय "राजराजेश्वरी करूणामाता हाथकरघा प्रोत्साहन पुरस्कार" की स्थापना की है।

राजा चक्रधर सिंह का जन्म 19 अगस्त, 1905 को रायगढ़ रियासत में हुआ था । नन्हें महाराज के नाम से सुपरिचित, आपको संगीत विरासत में मिला । उन दिनों रायगढ़ रियासत में देश के प्रख्यात संगीतज्ञों का नियमित आना-जाना होता था । पारखी संगीतज्ञों के सान्निध्य में शास्त्रीय संगीत के प्रति आपकी अभिरुचि जागी । राजकुमार काँलेज, रायपुर में अध्ययन के दौरान आपके बड़े भाई के देहावसान के बाद रायगढ़ रियासत का भार आकस्मिक रुप से आपके कंधों पर आ गया ।

1924 में राज्याभिषेक के बाद अपनी परोपकारी नीति एवं मृदुभाषिता से रायगढ़ रियासत में शीघ्र अत्यन्त लोकप्रिय हो गए । कला-पारखी के साथ विभिन्न भाषाओं में भी आपकी अच्छी पकड़ थी । कत्थक के लिए आपको खास तौर पर जाना गया । अपनी अनुभूति तथा संगीत की गहराइयों में डूबकर आपने कत्थक का विशिष्ट स्वरुप विकसित किया, जिसे रायगढ़ घराने के नाम से जाना जाता है ।

23 वर्षों के कार्यकाल में रायगढ़ को देश के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र के रुप में संवारने का श्रेय आपको है । आप समर्पित कला साधक होने के साथ-साथ उच्च कोटि के विद्वान और संगीत शास्त्र के ज्ञाता थे । आपने कत्थक की अनेक नई बंदिशें तैयार की । नृत्य और संगीत की इन दुर्लभ बंदिशों का संग्रह संगीत ग्रंथ के रुप में आया, जिनमें मूरत परन पुष्पाकर ताल-तोयनिधि, राग-रत्न मंजूषा, और नर्तन-स्वर्गस्वम् विशेष तौर पर याद किए जाते हैं ।

संगीत के क्षेत्र में आपके विशिष्ट योगदान को दृष्टिगत कर मध्य प्रदेश शासन ने भोपाल में चक्रधर नृत्य केन्द्र की स्थापना की है । देश के संगीत तीर्थ के रुप में स्थापित नगर-रायगढ़ और उसके नरेश की संगीत, नृत्य और ललित कलाओं के प्रति उनकी दूरदर्शी सोच और निष्ठा से अनवरत साधना स्मरणीय है । 7 अक्टूबर 1947 को रायगढ़ में आपका देहावसान हुआ । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में कला एवं संगीत के लिए चक्रधर सम्मान स्थापित किया है ।

छत्तीसगढ़ के जन-जन के कवि और छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत के बेताज बादशह थे। दशकों तक छत्तीसगढ़ के गांव, गरीब और किसानों की भावनाओं को गीतों के माध्यम से अपना मधुर स्वर देते रहे और जनता के दिलों में राज करते हैं। उनके गीतों में ग्रामीण जन-जीवन और छत्तीसगढ़ माटी की पीड़ा की अनुभूति होती है।

छत्तीसगढ़ का सहज-सरल लोक जीवन उनके गीतों में रचा-बसा था। मस्तुरिया जी का जन्म बिलासपुर जिले के मस्तुरी नामक गांव में 07 जून 1949 को हुआ था। मस्तुरिया जी ने छत्तीसगढ़ी कला-संस्कृति को अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से देश और दुनिया में नई पहचान दिलाई। अपनी मीठी आवाज में मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण गीतों ने उन्हें छत्तीसगढ़ में आवाज की दुनिया का नायक बना दिया। 22 वर्ष की उम्र में ही वे प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था चंदैनी-गोंदा के मुख्य गायक बन गये थें। इसके अलावा उन्होंने देश के दिग्गज कवियों के साथ कवि सम्मेलनों में भी कविता पाठ करते रहे। 24 वर्ष की उम्र में दिल्ली के लालकिले से लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ी में मोर संग चवल रे, मोर संग चलव जी गीत गाकर, उन्होंने छत्तीसगढ़ की जनता को सामूहिकता की भावना से प्रेरित किया था।

लक्ष्मण मस्तुरिया ने आकाशवाणी, दूरदर्शन, और कवि सम्मेलनों के मंच से लेकर, छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए भी गीत और आंचलिक साहित्य एवं संस्कृति पर केन्द्रित पत्रिका लोकासुर का संपादन भी किया। लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ी में काव्य संग्रह हू बेटा भुंइया के, गीत संग्रह गंवई-गंगा, धुनही बंसुरिया खंडकाव्य सोनाखाने के आगी, माटी कहै कुम्हार से सहित कई प्रतिनिधि कविताएं लिखीं, जिसमें पता दे जा रे, पता ले जा रे गाड़ी वाला, मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी, छइहां भुइहां ला छोड़ जवइया काफी लोकप्रिय रहे। उनका हिन्दी कविताओं का संकलन सिर्फ सत्य के लिए भी वर्ष 2008 में प्रकाशित हो चुका है। उनकी गीतों पर म्युजिक इंडिया के अनेक कैसेट भी निकले। हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में उनके योगदान पर, उन्हें ‘रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान, सृजन सम्मान और आंचलिक रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।

03 नवम्बर, 2018 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उनकी स्मृति में ‘लक्ष्मण मस्तुरिया सम्मान’ स्थापित किया गया है।

लाला जगदलपुरी (जन्म 17 दिसम्बर 1920) एक हिन्दी साहित्यकार हैं। वे बस्तर के निवासी है और छत्तीसगढ़ी कविताओं के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। हल्बी बोली रचित उनकी रचनाओं में श्रृंगार रस की प्रधानता है। नायिकाओं का श्रृंगारिक, मादकतापूर्ण चित्रण छत्तीसगढ़ी श्रृंगार साहित्य में अपूर्व है।

मूलतः हिन्दी का कवि होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी और बस्तर की हल्बी-भतरी लोक भाषाओं में भी पर्याप्त और उल्लेखनीय सृजन किया। उनकी ‘हल्बी लोककथाएं’ के कई संस्करण प्रकाशित हो गए हैं। बाल साहित्य, लेखन में भी उनका गुणात्मक योगदान उल्लेखनीय और सराहनीय रहा है।

लेखन के साथ-साथ जगदलपुरी जी अध्यापन तथा खेती काम करते हैं। बस्तर से उनका अगाध प्रेम है। उन्होंने 1936 से लेखन प्रारंभ किया। लालाजी का जीवन साहित्यिक पत्रकारिता को समर्पित रहा था। वे जगदलपुर से कृष्ण कुमार द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘अंगारा’ में सम्पादक, रायपुर से ठाकुर प्यारे लालजी द्वारा प्रकाशित ‘देशबंधु’ में सहायक सम्पादक, महासमुंद से जयदेव सतपथीजी द्वारा प्रकाशित ‘सेवक’ में सम्पादक और जगदलपुर से ही तुषार कान्ति बोस द्वारा बस्तर की लोक भाषा ‘हल्बी’ में प्रकाशित साप्ताहिक ‘बस्तरिया’ में सम्पादक रहे।

छत्तीसगढ़ शासन उनकी स्मृति में आंचलिक साहित्य एवं लोक कविता के लिए ‘‘लाला जगदलपुरी साहित्य पुरस्कार’’ स्थापित किया गया है।

रानी अवंती बाई लोधी (जन्म 16 अगस्त 1831 - 20 मार्च 1858), जन्म स्थल ग्राम मनकेड़ी, जिला-सिवनी (मध्यप्रदेश) एक भारतीय महिला थी, जो स्वतंत्रता सेनानी और प्रथम शहीद वीरांगना थीं। यह मध्य प्रदेश में रामगढ़ राज परिवार की महिला नायिका थीं। विद्रोह करने के बाद अंग्रेजी सरकार ने इनके परिवार की जमींदारी को जप्त करके अन्य लोगों को जमींदार बना दिया था। 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की एक कट्टर विरोधी के रूप में जानी जाती है।

रामगढ़ के राजा विक्रमाजीत सिंह को विक्षिप्त तथा अमान सिंह और शेर सिंह को नाबालिग घोषित कर रामगढ़ राज्य को हड़पने की दृष्टि से अंग्रेज शासकों ने पालक न्यायालय (कोर्ट ऑफ वार्ड्स) की कार्यवाही की एवं जिससे रामगढ़ रियासत “कोर्ट ऑफ वाईस“ के कब्जे में चली गयी। अंग्रेज शासकों की इस हड़प नीति का परिणाम भी रानी जानती थी, फिर भी दोनों सरबराहकारों को उन्होंने रामगढ़ से बाहर निकाल दिया। 1855 ई. में राजा विक्रमादित्य सिंह की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी।

अब नाबालिग पुत्रों की संरक्षिका के रूप में राज्य शक्ति रानी के हाथों आ गयी। रानी ने राज्य के कृषकों को अंग्रेजों के निर्देशों को न मानने का आदेश दिया, इस सुधार कार्य से रानी की लोकप्रियता बढ़ी। रानी अंवती बाई के द्वारा “अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियां पहनकर घर में बैठो।“ पत्र सौहार्द और। एकजुटता का प्रतीक था तो चूड़ियां पुरुषार्थ जागृत करने हेतु क्षेत्रीय सम्मेलन का सशक्त माध्यम बनी। पुड़िया लेने का अर्थ था अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति में अपना समर्थन देना।

महिलाओं की वीरता, शौर्य, साहस तथा आत्मबल को सशक्त करने के उद्देश्य के लिए ‘‘वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी स्मृति पुरस्कार’’ स्थापित किया है।

1857 के स्वतंत्रता समर में मातृभूमि के लिए मर मिटने वाले शहीदों में छत्तीसगढ़ के आदिवासी जन-नायक, वीर नारायण सिंह का नाम सर्वाधिक प्रेरणास्पद है । आपका जन्म 1795 में सोनाखान के जमींदार परिवार में हुआ था । आपके पिता रामसाय स्वाभिमानी पुरुष थे और 1818-19 के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसलों के विरुद्ध तलवार उठाई परन्तु कैप्टन मैक्सन ने विद्रोह को दबा दिया । बिंझवार आदिवासियों के सामर्थ्य और संगठित शक्ति से जमींदार रामसाय का दबदबा बना रहा और अंग्रेजों ने उनसे संधि कर ली ।

पिता की मृत्यु के बाद 1830 में आप जमींदार बने।परोपकारी, न्यायप्रिय तथा कर्मठ शासक होने के कारण अंचल के लोगों से मिलते तथा उचित सहायता करते । 1854 में अंग्रेजी राज्य में विलय के बाद नए ढंग से टकोली नियत की गई जिसका आपने प्रतिरोध किया इससे रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट आपके घोर विरोधी हो गए ।

1856 में छत्तीसगढ़ भीषण सूखे की चपेट में आ गया । लोग दाने-दाने को तरसने लगे लेकिन कसडोल के व्यापारी माखन का गोदाम अन्न से भरा था । कहने पर भी जब व्यापारी अनाज देने को तैयार नहीं हुआ तो आपने अनाज भंडार के ताले तुड़वा दिए । अंग्रेज सरकार आपके विरुद्ध किसी भी तरह कार्यवाही करने के फिराक में थी ।

व्यापारी की शिकायत पर इलियट ने आपके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया । 24 अक्टूबर 1856 को आपको संबलपुर में गिरफ्तार कर लिया गया । 28 अगस्त 1857 को अपने तीन साथियों सहित जेल से भाग निकले और सोनाखान पहुंच कर 500 बंदूकधारियों की सेना बनाई और अंग्रेजों के विरुद्ध जबरदस्त मोर्चाबंदी कर करारी टक्कर दी । भीषण संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने कूटनीति से आपको कैद कर मुकदमा चलाया और 10 दिसम्बर 1857 को फांसी दे दी गई ।

अन्याय के खिलाफ सतत् संघर्ष का आह्वान, निर्भीकता, चेतना जगाने और ग्रामीणों में उनके मौलिक अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न करने के प्रेरक कार्यो को दृष्टिगत रखते हुए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग में उत्थान के क्षेत्र में शहीद वीर नारायण सिंह सम्मान स्थापित किया है ।

संस्कृतं नाम दैवीवाग् अन्वाख्याता महर्षिभिः ।
संस्कृतं च संस्कृतिश्च श्रेयसे समुपास्यताम् ।।

संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में प्राचीनतम् तथा सर्वोत्तम भाषा है । संस्कृत भाषा ही भारत की प्राणभूत भाषा है तथा भारत वर्ष को एक सूत्र में बांधती है ।

संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में प्राचीनतम् तथा सर्वोत्तम भाषा है । संस्कृत भाषा ही भारत की प्राणभूत भाषा है तथा भारत वर्ष को एक सूत्र में बांधती है ।

संस्कृत भाषा में ही विश्व साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है । चारो वेद, उपनिषद्, षड्वेदांग, षड्दर्शन, धर्माशास्त्र, रामायण, महाभारत, नितिशास्त्र, आध्यात्मविद्या, कौटिल्य अर्थशास्त्र, काव्यग्रन्थ, नाट्यग्रन्थ, गीता, पुराण तथा स्मृतिग्रन्थ आदि संस्कृत के महत्व को प्रतिपादित करते हैं ।

राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए संस्कृत का प्रचार एवं प्रसार करना सभी का कर्तव्य है ।
।। भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा ।।

छत्तीसगढ़ शासन ने संस्कृति शिक्षा के संवर्धन के लिए संस्कृत भाषा सम्मान स्थापित किया है ।

हाजी हसन अली का जन्म 2 अक्टूबर 1913 में रायपुर में हुआ था । स्वनामधन्य पिता श्री डी.बी.खमीसा के सान्निध्य में, साहित्यिक वातावरण में आपका लालन-पालन हुआ । आपकी शिक्षा-दीक्षा उर्दू माध्यम से हुई । अदीबे कामिल समकक्ष बी.ए. तक आपने तालीम प्राप्त की । उर्दू अदब के बुजुर्गों की शागिर्दी में रहते हुए आप युवावस्था से ही उर्दू साहित्य की खिदमत करने लगे । आपने उर्दू भाषा को जन सामान्य में प्रचलित करने की दृष्टि से उर्दू कैसे सीखें हिन्दी से उर्दू सीखे तथा लिखना पढ़ना उर्दू सीख जैसी पुस्तकों की रचना की ।

अंजुमने पंजतनी के अध्यक्ष की हैसियत से आपने अखिल भारतीय मुशायरा तथा अखिल भारतीय उर्दू कांफ्रेन्स आयोजित किया। उर्दू शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए आपने 1972 में मदरसां स्कूलो की स्थापना की, साथ ही पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को अध्ययन हेतु प्रेरित करने के लिए इनाम देने की परम्परा भी आरंभ की। समाज सेवा से संबंधित कार्यक्रमों में भी आप लगातार शरीक होते रहे।

उर्दू की सेवा के लिए आपको अनेकों सम्मान से नवाजा गया है, जिनमें मुहाफिले उर्दू, आदाबे उर्दू, उर्दू रत्न, रुहे उर्दू, उर्दू की जान और शान आदि उल्लेखनीय हैं । जीवन पर्यन्त उर्दू की निःस्वार्थ सेवा करने और शायरों-कवियों की हौसला-अफजाई करने वाले हाजी साहब का विचार था कि उर्दू सिर्फ मुस्लिमों की जबान नहीं है, वरन् देशवासियों की भाषा है । आपकी शख्सियत में अदब नवाजी के साथ खुद्दारी की झलक थी । वतनपरस्ती के साथ कौम की खिदमत में आप हमेशा मसरुफ रहे । ताजिन्दगी उर्दू की बेहतरी के लिए फिक्रमंद, आपका इन्तकाल 72 साल की उम्र में 19 फरवरी 1985 को हो गया । छत्तीसगढ़ में उर्दू अदब को प्रोत्साहन देने, माकूल फिजा तैयार करने और गौरवशाली परंपरा को कायम रखने वाले हाजी साहब का अवदान नई पीढ़ी को रौशनी देता रहेगा । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में उर्दू भाषा की सेवा के लिये हाजी हसन अली सम्मान स्थापित किया है ।