बिलासाबाई केवटिन सम्मान

बिलासा केवटिन का जन्म अरपा नदी के किनारे हुआ था । 16वीं शताब्दीं अपने शौर्य और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध बिलासा के नाम से बिलासा मछुवारों की गुमनाम बस्ती में जन्मी अत्यंत रुपवान केवट कन्या थी । बिलासा से संबंधित लोक कथाओं में उल्लेख है कि एक बार किसी राजा ने उसके स्वाभिमान पर प्रहार करना चाहा । देवार गीतों में उसके श्रृंगार का विवरण मिलता है -

खोपा पारय रिंगी - चिंगी
ते मां खोंचय सोन के सिंगी
गीत में अतिश्योक्ति है - 'रुप के माची, सोन के पर्रा'

केवटिन के काव्यात्मक कथन में तत्कालीन समाज का चरित्र और स्वभाव उभरता है, जिसमें सोलह जातियों का साम्य सोलह जाति की मछलियों से बताते हुए, केवटिन की सामाजिक संरचना की समझ और वाक्पटुता उजागर होती है । केवटिन की वाक्चातुर्य के लिए पंक्तियां हैं, 'धुर्रा के मुर्रा बनाके थूंक मं लाडू बांधय'

केवट जाति में पैदा होना तथा मत्स्याखेट में सलग्न रह कर इतिहास में चर्चित होने की वजह से समाजवासियों के मध्य वह आज भी सम्मानित है । बिलासा केवटिन के इतिहास से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ के मछुवारों के विकास एवं मत्स्य पालन को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य शासन ने सन 2006 से श्रीमती बिलासाबाई केवटिन पुरस्कार की घोषणा की ।